Thursday, December 29, 2011

ये वक़्त ना हंसने गाने का ...


ये वक़्त ना हंसने गाने का,
ये क्षण तो खून बहाने का ...
संग्राम खड़ा सरहाने मेरे ...
इक मुट्ठी रक्त नहाने का ...

नभ-नक्षत्र नाप में लाने का ...
फिर क्षितिज लांघ के जाने का...
फिर से त्रिशंकु बरसाने का ..
खुद पृथक राह बन जाने का
फिर शत्रु-बल हथियाने का ,
हिम की छोटी पिघलाने का,
और चहुँ ओर छा जाने का ,
फिर उत्प्लावन में बह जाने का ..
खुद को आहुत कर जाने का ..
फिर रण-कौशल दिखलाने का ..
फिर चाणक्य-नीति अपनाने का ...

जब शत्रु से शब्द ना आने का ...
तो मस्तक दांव लगाने का ..
फिर अग्नि-सिन्दूर उठाने का ...
फिर से वर्चस्व मिटाने का ...
फिर से त्रिशंकु बरसाने का ..
खुद पृथक राह बन जाने का ..

Monday, December 26, 2011

रिसते हुए रक्त ने पूछा ...


रिसते हुए रक्त ने पूछा, ये क्या युद्ध की भाषा है ..
कटे लाख सर बिन कारण के, पर बढती और पिपासा है ...
कहा वक़्त ने हँसते हँसते , ये हर युग की परिभाषा है ...
हर युग में यह होता लेकिन, ये भी खूब तमाशा है ...

इक युग में देखा कलिंगा, इक युग में रामायण देखा ,
इक में देखा छत्रपति तो, इक युग में नारायण देखा ,
सतयुग आया, देखा अर्जुन; इक एकलव्य भी मैंने देखा ...
देखी मैंने मरती सांसें, लाल द्रव्य भी मैंने देखा ...

कहा वक़्त ने चुपके से फिर, तू क्यूँ रोता लहू मगर है,
गर शरीर में दर्द छिपा है , थोड़ी भी सच्चाई अगर है ,
आएगा इक दिन ऐसा भी ; जब वो खुद में ही रह जाएगा,
जो बहा रहा वो दरिया तेरा, फिर खुद उसमे ही बह जाएगा,
फिर सोचेगा क्या पाया उसने ; युद्ध की क्या कुछ परिभाषा है ..
हर युग में ये होता लेकिन, ये भी खूब तमाशा है ...

मानव तुमको इतिहास रचाना है ...


मानव तुमको इतिहास बनाना है,
सूखे पत्तों और काटों पे चलकर जाना है ...

विश्राम मिले न तुमको ; पर विश्वास दिखाना है ...
पर्वत कितना भी ऊंचा हो, सागर कितना भी गहरा हो,
खुद को इक आस बंधाना है, इक श्वास में जाना है ....
मानव तुमको इतिहास बनाना है ...

कोई न रहे लाठी बन कर; कोई न रहे साथी बन कर ..
पर लगे कहीं भी आग मगर, इक फूँक बुझाना है ..
हिम की छोटी पर रहो अडिग, या हिंद महासागर में स्थित,
ये भूल न जाना की तुमको धरती का क़र्ज़ चुकाना है ...
मानव तुमको इतिहास बनाना है ...

है कटा शीश , हो अर्धनग्न, पर फिर भी हाथ बढ़ाना है ..
अपने धरती को सींच रक्त, तुमको बलिदान चढ़ाना है ...
चाहे जोखिम में जान पड़े, चाहे तू मर्यादा लांघ परे,
पर प्रति-पल अपनी जननी की तुझको सिन्दूर बचाना है ..
मानव तुमको इतिहास बनाना है ...


मृग-मरीचिका का वक़्त नहीं , काटो तो कहीं भी रक्त नहीं ..
अपने अन्दर के रावण में , फिर तुमको राम जगाना है ...
मानव तुमको इतिहास रचाना है ....

सिंह-नाद करे कोई रण में ...

सिंह-नाद करे कोई रण में, रण में कोई हुंकार करे ...
हर शीश गिरे धरती पर; जब शत्रु मर्यादा पार करे ...
जीत सके न मन को तो , तन पे ही सौ सौ वार करे ...
इक जीत तुम्हारी हो कर भी, यह जीत तुम्हारी हार करे ...

हो सजा फर्श पे अस्त्र-शस्त्र, और इक दीपक-थाल पड़ा ..
मस्तक में हो रक्त जड़ा , और मुट्ठी में लाल पड़ा ...
पौरुष से फिर फूटी धरती , फिर पूरा आकाश खड़ा ...
रक्त स्वेद से लथपथ ; फिर भी अर्जुन अविनाश अड़ा ...
यह हार जीत का निश्चय फिर, हो जाए विकराल बड़ा ...
क्या विजय-तिलक भावार्थ यहीं, कि चहुँ ओर कंकाल पड़ा ...

जो मिट्टी पे अधिकार करे, क्या मन पे भी अधिकार करे ...
बल से शरीर झुक जाए पर, मन क्यूँ शत्रु स्वीकार करे ...
छल से प्रेरित जो देव कहीं , मन उसको भी अविकार करे ...
है बड़ा विषम यह युद्ध पितामह, यह युद्ध ह्रदय पे भार करे ..

जो मिट्टी पे अधिकार करे, क्या मन पे भी अधिकार करे ...
बल से शरीर झुक जाए पर, मन क्यूँ शत्रु स्वीकार करे ...