
ये युद्ध न कोई छल प्रपंच है,
हे अर्जुन; बस ये रंगमंच है ...
नश्वर शरीर आधा गुलाल है ...
बस पृष्ठ-भूमि का रंग लाल है ...
भरी सभा में हो गया,
जब द्रौपदी का चीर,
खड़ा रहा तू देखता,
बता तू किस तरह का वीर ?
क्यूँ फटी नहीं धरा तेरी ...
क्यूँ न फैला रक्ताबीर ?
तू भी मौन देखता रहा,
हुआ तू क्यूँ नहीं अधीर ?
पार्थ! बता तू किस तरह का वीर ???
ना मिलेंगे वृक्ष-छाँव में,
हो वीर जिन दिशाओं में,
जो धूल धूल हो शरीर,
वहीँ तो बन गया है वीर ...
ये न सोच अब कहीं,
की शत्रु मेरा भाई है ...
भाग्य में यहीं लिखा,
कि ये धर्म की लड़ाई है ...
बाण भेद दे शरीर,
आत्मा ना होगी चीर,
ये चिता तो देह-भस्म है ...
यहीं तो प्रकृति का रस्म है ...
-कृष्ण
मैं कैसे गांडीव उठाउँगा
सबको छलनी कर जाउँगा
क्या बल से ही परिणाम-विजय होगा ?
या छल से भी वध-निर्णय होगा ?
ये युद्ध जीत भी गया,
तो सबको हार जाऊँगा ...
जो कटा यह वंश-वृक्ष तो...
किसकी छाँव पाऊँगा ???
क्यूँ धर्म-नाम युद्ध हो,
क्यूँ भूमि फिर से क्रुद्ध हो ?
मैं क्यूँ धरा को दाग दूं ?
मैं क्यूँ न द्वेष त्याग दूं ...
घनी है धुंध राह में,
की दृष्टि दूर तक गडी ...
जब रक्त हर कराह में ,
फिर तेरी ये सृष्टि क्यूं खड़ी ?
है कौरवों का रक्त ये ,
पर रक्त क्यूं बहे हरि ?
क्या फर्क होगा लाल में ...
जब लाल हो धरा पड़ी ?
मैं थक गया कराह से,
गुलाल के प्रवाह से ..
मैं क्यूँ चिता को आग दूं ?
मैं क्यूँ न बाण त्याग दूं ...
मैं विध्वंस त्याग दूं 'हरि'
फिर धरा हो स्वर्ग से बड़ी,
मैं क्यूँ धरा को दाग दूं ?
मैं क्यूँ न द्वेष त्याग दूं ...
-अर्जुन
No comments:
Post a Comment