Wednesday, December 28, 2016

सब में राम है सब में रावण ...

दसग्रीव यहाँ पे मर जाएँ,
सब अवगुण मेरे हर जाएँ ,
पुतले को जला दिया मैंने ,
पर मन में तो लंका बैठी है ...
क्या सच में रावण दहन किया ?
मन में ये शंका बैठी है ...
क्या सच में रावण दहन किया ?
मन में ये शंका बैठी है ...

माता का हरण करे कोई,
तो क्यों न अज्ञानी कहलाये,
पर जो अग्नि के सम्मुख करे उन्हें,
फिर वो क्यों ज्ञानी कहलाये ?
आधा मैला आधा पावन ,
छब्बीस गुण और अवगुण बावन ,
सब में राम है सब में रावण ...
सब में राम है सब में रावण ..


गधा भी एक दिन सोचने लगा ...

गधा भी एक दिन सोचने लगा ,
कि वो राजगद्दी पे क्यूँ नहीं बैठ सकता ...
शेर ने आखिर किया ही क्या है ...
अपने पांच साल के कार्यकाल में जनता को दिया ही क्या है ...
अब बात ऐसी थी की जंगल में जनतंत्र था ...
इसलिए गधा चुनाव में खड़ा हो सकता था ...
गधे को लगा की ये एकमात्र ऐसा मंच है ...
जिसके माध्यम से ओहदे में शेर से भी बड़ा हो सकता था ...

चुनाव की घोषणा जंगल में आग की तरह फ़ैल गयी ...
सारे जानवर खुश थे की इस बार शेर को भी टक्कर मिला है ...
अब तक एकछत्र राज था उसका ,
पर अब शेर के बच्चे को एक असली बब्बर मिला है. ...
शेर ने सोचा की कछुआ सबसे बुद्धिमान प्राणी है ...
दौड़ में उसने खरगोश को हराया था ...
इसलिए वो बुद्धिजीवी सबसे ग्यानी है ...
कछुओं से निवेदन किया की वो अपनी बुद्धिमता से शेर को ही जिताएं ,
और उपहार स्वरुप मंत्री परिषद् में अपने लड़के लाएं ...
अब कछुए थे एक नंबर के आलसी
पर उन्हें शेर को ना कहना मंजूर नहीं था ...
क्योंकि ये लोक तंत्र का दस्तूर नहीं था ...
कछुओं ने शेर की बात पे हामी भर दी
और जाने अनजाने में शेर की माँ बहन कर दी ...
अब शेर निश्चिन्त हो कर राजगद्दी पर दहाड़ मारता रहा ..
और कछुआ वहां समुद्र तट पर डकार मारता रहा ...

जैसे जैसे चुनाव का दिन नज़दीक आने लगा ...
गधा अपनी रणनीति बनाने लगा ...
चूहे तो उसके समर्थन में थे ही ...
बकरों ने कोई आपत्ति नहीं की ...
क्योंकि एक दिन तो उन्हें कटना ही था ...
शेर और गधे दोनों के रास्ते से ही हटना ही था ...
क्योंकि चुनाव से कुछ बदलता नहीं ...
वो उनके लिए बस एक पंचवर्षीय घटना ही था ...

घोषणापत्र में गधे ने कहा की सत्ता में आने पे ..
वो सबको माला-माल कर देगा ...
और भ्रष्ट नेताओं को कंगाल कर देगा ...
भेड़ों को कहा की उनको चारपाई देगा ,
और सर्दियों में उनको ऊन की रजाई देगा ...
भेड़ों को ये बात बहुत पसंद आई ,
कि नयी सरकार देगी उन्हें ऊन की रजाई ...
बांकी गधों ने बैठक बुलाकर जम कर विचार किया ,
और बिना किसी जानकारी के भावी नेता का प्रचार किया ...
चुनाव के दिन नतीजे निकले ,
तो गधे को भारी बहुमत मिला ...

गधे ने कहा की मैं भ्रष्टाचार को जला कर शुद्ध कर दूंगा ...
और अपने बाहुबल से तुम सबको मंत्रमुग्ध कर दूंगा ...
क्योंकि राजा की बग्घी को धीमा पाया गया,
इसलिए सबसे पहले घोड़े को हटा के शेर को लगाया गया ...
खाली वक़्त में शेर अब धोभी घाट पर कपडे का गट्ठर ढो रहा है ...
और ऊपर बैठा भगवान् पशु की इस मनुष्यता पे रो रहा है ...
और ऊपर बैठा भगवान् पशु की इस मनुष्यता पे रो रहा है ...

Friday, July 29, 2016

तुम तब भी रहना चट्टान अडिग ...


जब लोग यहाँ धिक्कारेंगे,
अंतर्मन को मारेंगे,
सच्चाई नहीं स्वीकारेंगे ;
तुम तब भी रहना चट्टान अडिग …
वो अंत में खुद से हारेंगे ...

चहुँ ओर दिया बुझ जाएगा,
बोझ से मन झुक जाएगा ...
हर दिशा समय रुक जाएगा ;
तुम तब भी रहना चट्टान अडिग …
चक्की में घुन पिस जाएगा ...
फिर वक़्त बदल के आएगा ...

वो अश्रु का मोल न समझेंगे,
कुछ प्यार के बोल न समझेंगे ,
मन में फिर शंका जागेगी ,
मन हर क्षण लंका भागेगी ...
दस रुपी रावण उठ जाएगा ;
तुम तब भी रहना चट्टान अडिग ...
फिर राम-राज्य छा जाएगा ...

फिर विष का सेवन करना होगा ,
अँधेरे से डरना होगा ,
फिर पैदा होगा कंस यहाँ ...
फैलेगा विध्वंस यहाँ ;
तुम तब भी रहना चट्टान अडिग ...
फिर जागेगा नर-सिंह अंश यहाँ ...

मन में क्रोध तो जागेगा ,
शैतान रगों में भागेगा ,
जब द्वेष भी हावी हो तुमपे ;
तुम तब भी रहना चट्टान अडिग ...
जब परिवेश प्रभावी हो तुमपे ...

जब दुर्योधन आग लगाएगा ,
जब कर्ण धर्म जल जाएगा ,
जब पहला निर्णय छल से होगा ;
तुम तब भी रहना चट्टान अडिग ....
क्योंकि अंतिम निर्णय बल से होगा ...
फिर न्याय यहाँ कल से होगा ....
फिर न्याय यहाँ कल से होगा ..

फेसबुक देशभक्ति ...


आधे राजनीतिज्ञ सत्ता के नशे में झूमते हैं ,
और बाँकी आधे फेसबुक पे घूमते हैं ...
नीतियाँ चाहे भारतवर्ष की हो अमरीका की,
नुक्ताचीनी करने का न कोई मौका चूकते हैं ...
अपनी सारी अंग्रेजी फेसबुक पे ही थूकते हैं ...

जितने देशभक्त आज़ादी की लड़ाई को पैदा नहीं हुए ,
उस से ज्यादा तो फेसबुक के आने पे पैदा हो चुके हैं ...
उन्हें लगता है की वो देश के सभी उलझनों को सही कर चुके हैं,
जबकि अपनी विशेष टिप्पणियों से वो सबके दिमाग का दही कर चुके हैं...
कुछ को लगता है की भगवान् या रब बन चुके हैं ...
और बाकियों को लगता है की वो अरनब बन चुके हैं ...

फेसबुक देशभक्त अपनी खोखली दलीलों से भक्तों की मरहम-पटट्टी कर रहा है ...
और उसे प्रतीत होता है की इन्ही दलीलों की वजह से देश तरक्की कर रहा है...
देशभक्तों को छोड़ दो तो बचे ही कौन ,
आशिक , बीमार , उल्लू और लाचार ...
इनसे देश को तो रत्ती भर भी खतरा नहीं है ,
क्यूंकि इनमें फेसबुक देशभक्ति का एक भी कतरा नहीं है ...
क्यूंकि इनमें फेसबुक देशभक्ति का एक भी कतरा नहीं है ...

स्याह-छींट बन गयी गवाही ...


फिर सोचा एक पतंग बनाएं ,
उसपे चढ़ कर चाँद को जाएँ ,
पीछे से हम घर कर लेंगे ,
चाँद को झोले में भर लेंगे...

हमने तिकड़म खूब भिड़ाया,
पर चाँद हमारे पकड़ न आया ...
अब जब चाँद हमारे पकड़ न आया ,
हमने कोरे कागज़ कलम चलाया ,
श्वेत रंग से सने थे पन्ने ,
पर श्वेत पन्नों में नज़र न आया ...

फिर हमने मलिन लेखपत्र सा खोला,
बड़े ध्यान से उसे टटोला ...
फिर हमने फेंकी काली स्याही,
बिन बात के फैली हर तरफ तबाही ...
श्वेतपत्र भी मलिन हुआ फिर ,
स्याह-छींट बन गयी गवाही ...

पूरी ज़िन्दगी हम तमाम कर गए...


दस प्रतिशत ज़िन्दगी लिंक्ड-इन
दस प्रतिशत फेसबुक ,
और तीस प्रतिशत व्हाट्सप्प के नाम कर गए,
और बाँकी बची ज़िन्दगी मोबाइल के पैगाम कर गए,
और इस तरह पूरी ज़िन्दगी हम तमाम कर गए ...

मिस्टर एक्स को दस प्रतिशत...
मिस्टर वाई को भी दस प्रतिशत ...
पर मिस जेड को तीस प्रतिशत बदनाम कर गए ...
और आधी बदनामी अपने नाम कर गए ...
और इस तरह पूरी ज़िन्दगी हम तमाम कर गए ...

दस प्रतिशत रक्त का हल्का बहाव
दस प्रतिशत पदोन्नति का तनाव ,
और तीस प्रतिशत रिश्तों का घाव ...
और बाँकी आधी ज़िन्दगी गधों की तरह काम कर गए ...
अपनी समझ दो कौड़ियों के दाम कर गए ...
और इस तरह पूरी ज़िन्दगी हम तमाम कर गए ...
और इस तरह पूरी ज़िन्दगी हम तमाम कर गए ...

Friday, October 16, 2015

कुछ रिश्ते दीवार पे टांगे थे ...


धीमी सी आंच पे जलते जलते
अब सारे शीश पिघल आये...
कुछ रिश्ते धागों मे बांधे थे,
अब धागों में गाँठ निकल आये...

इस जीवन आपा धापी में
हम मीलों मील निकल आये ...
कुछ रिश्ते दीवार पे टांगे थे ,
अब उनके कील निकल आये ...

ये युद्ध नहीं प्रलय होगा ...


नारायण शीतिकंठ युद्ध में,
कैसे कोई भी विजय होगा ...?
क्या नारायण के चक्र से ही निर्णय होगा ?
या नारायण को भी शूलपाणि का भय होगा?
हे नारद; ये युद्ध नहीं प्रलय होगा ...
-ब्रह्मदेव

अब धरा ना ऐसे वीर दे ...


था अधर्म तब वहाँ,
जब लगी थी कोई दाँव पे,
था अधर्म कि सब पड़े,
ले के मौन-बेडी पाँव में ...

प्रण से बाध्य भीष्म-द्रोण ,
मूक देखते रहे ,
जब ज्येष्ठ द्यूत में वहाँ,
प्रण के पास फेंकते रहे ...

जो कुलवधू को चीर दे ,
वो प्रण ही क्या जो पीड़ दे,
जिस प्रण में ना करुण बसा,
अब धरा ना ऐसे वीर दे ...
अब धरा ना ऐसे वीर दे ...

पर छल से बन जाऊं न वीर ...


स्वीकार्य मुझे है मल शरीर,
पर छल से बन जाऊं न वीर,
क्या फिर से दान कवच होगा ,
क्या फिर चुप्पी साधे सच होगा ?
क्या रण में वीरों का भय होगा,
या रण भी चौसर से तय होगा ?
- अर्जुन

क्या सूत-पुत्र का भय तुमको ,
तुम क्यों व्याकुल हो मित्र यहाँ,
गांडीव जीते या विजय धनुष,
बन जाएगा चलचित्र यहाँ ,
जब फैलेगा रक्त-इत्र यहाँ ...
फिर कर्ण जीते या पार्थ यहाँ,
फिर जीतेगा पुरुषार्थ यहाँ ...
- कृष्ण

है विधि का विधान ये ...


है विधि का विधान ये ,
है आज कर्ण-दान ये,
फिर भी ना छीन पाओगे,
हे इन्द्र! युद्ध ज्ञान ये...

क्षीण सूत-पुत्र से ,
क्षत्रिय का गुमान ये,
था कवच ये कर्ण-चर्म,
पर अब हुआ है मान ये,
ना दया का पात्र इन्द्र-पुत्र,
हे इन्द्र ! अब रहे ये ध्यान ये ...
- कर्ण

ये संचार-माध्यम भी आजकल कमाल करता है ...


ये संचार-माध्यम भी आजकल कमाल करता है ,
कभी मोदी ,
कभी केजू ,
तो कभी राहुल बाबा से सवाल करता है ...

करोड़पति के घपले छोड़,
सौ टके पे बवाल करता है...
अंधे को लूला , लूले को लंगड़ा,
और लंगड़े को बेहाल करता है ...

और जहाँ कोई क्रांतिकारी पैदा हुआ नहीं,
कि उसकी नीयत पे सौ सौ सवाल करता है ...
बैताल को बिक्रम और बिक्रम को बैताल करता है ...
लहू को बेरंग और नीर को फिर लाल करता है ...
जी हाँ हुज़ूर ये संचार माध्यम भी कमाल करता है ...

जी हाँ हुज़ूर ये संचार माध्यम ,
कभी तिल का ताड़ तो कभी बाल की खाल करता है ...
बिके हुए लोगों के खड़ी मिसाल करता है ...
सत्य को असत्य और असत्य को मालामाल करता है ...
कभी दाल में काला और कभी काले में दाल करता है ...
जी हाँ हुज़ूर ये संचार माध्यम भी कमाल करता है ...

Friday, January 02, 2015

क्या मुश्किल जासूस ने पूछा ...

क्या मुश्किल जासूस ने पूछा ,
लॉलीपॉप फिर चूस के पूछा ,
क्या विघ्न है आई कुछ तो बोलो
अपने दिल का दुखड़ा खोलो,
मैं सौ मुश्किल की चाभी हूँ ,
मैं बड़े बड़ों पे हावी हूँ ,
मैं हर हालात प्रभावी हूँ ...
मेरे मुह में शब्द रुके थे,
ग्‍लानि-भाव से नैन झुके थे,
महाराज क्या छिपा आपसे,
साथ में अपने गेम हुआ है ...
इस ढलती उम्र में फिर से मुझको ,
इक कन्या से प्रेम हुआ है ...
पल भर में जासूसी उसकी ,
मंद मंद में ले ली मुस्की ...
पहले गाँधी-पेपर फेंको,
फिर इसकी तरकीब भी देखो ..
फिर कन्या-शास्त्र दिखाउँगा
प्रेमी ब्रह्मास्त्र सिखाउँगा ...
हमने कहा ठीक है ये सब ,
पर हमको इतना सिखलाओ,
बाबूजी कंट्रोल में आयें,
ऐसा कोई नुस्खा दिखलाओ ...
बाबूजी गर माने ही ना,
तो प्रेम अधूरा रह जायेगा ,
थोड़े दिन में स्वप्न प्रेम का
प्रेम-गटर में बह जायेगा ...
डर था मुझको बाबूजी का,
खाल उधेड़ेंगे पीठ की ,
फिर बोलेंगे बेटा मैने ,
बस लाज रखी है पित्र-रीत की ...
फिर सपने में मुझको खुशबू,
आई ऐसी प्रेम-जीत की ...
लगे शैल फिर कदम चूमने,
मन ही मन में प्रेम-प्रीत की ...
बाबूजी की चिंता छोड़ो,
उनको दूंगा ऐसी घुट्टी,
पल में उनको मोम करूँगा,
कर दूंगा उनकी मैं छुट्टी ...
नहीं हुई गर शादी उस से ,
ब्रह्मचर्य लेना फिर झूट्ठी ...
फिर प्रियतमा से प्रेम जताना ,
कुछ ऐसे हथकंडे अपनाना ....
उसको कहना डार्लिंग तुमको ,
चाँद सितारे तोड़ के दूंगा ...
तुमको हर टूटी सेंडिल फिर,
फेवीकोल से जोड़ के दूंगा ...

प्रेम-परीक्षा में तुमको मैं ,
लक्षम्ण रेखा मोड़ के दूँगा ...
प्राण-प्रिये फिर प्रूफ में तुमको ,
परमाणु बम फ़ोड़ के दूँगा ...
है दावा जासूस जॉन का ,
टूटे दिल फिर जोड़ के दूँगा ...
है दावा जासूस जॉन का ,
टूटे दिल फिर जोड़ के दूँगा ...

गर हम भी 'लव मॅरेज' करते ...


हमसे भी जलते सब लोग ,
और अपनी तारीफों के पुल बँधते ...
गर हमको भी प्रेम हुआ होता ,
गर हम भी 'लव मॅरेज' करते ...

अपना था बचपन से सपना,
की नैन-मटक्का होता अपना ...
रात रात भर नींद ना आती ,
सपनों में प्रियतमा दिख जाती ...

जो गर्लफ्रेंड के छूते हाथ ,
मन के अंदर होता विस्फोट,
और 'लूसर' फ्रेंड्स जो उस से मिलते,
उनको दिल ही दिल में लगती चोट ....

देख के अपनी हॉट गर्लफ्रेंड ,
मन ही मन सब आहें भरते ...
गर हमको भी प्रेम हुआ होता ,
गर हम भी 'लव-मॅरेज' करते ...

पर हम बँधते प्रेम-सूत्र में ,
ये नियती को मंज़ूर नहीं था ...
पर हम रहते फिर सदा ही 'लूसर'
वक़्त इतना भी क्रूर नहीं था ...

मेरी बढ़ती उम्र देख कर ,
बाबूजी थोड़ा घबराये ,
बढ़ा चढ़ा के पेपर में फिर,
रंगीले इश्तिहार छपवाये ...
इश्तिहार कुछ ऐसा निकला,
रंग साँवला , रूप छरहरा ,
पर लड़का अपना बड़ा स्मार्ट है ...
नम्र बोल है , कद सुडौल है ...
सलमान सा दिखता बॉडी-गार्ड है ...
थोड़ा सा शर्मीला है पर,
समझो लड़का वाइल्ड-कार्ड है ...

इश्तिहार का जादू देखो ,
अब अपना स्टेटस चेंज हुआ ,
लव मॅरेज हो ना पाया तो क्या ,
अपना मॅरेज तो अरेंज हुआ ...
फिर प्यारी बातें करने को ,
नंबर जब से एक्सचेंज हुआ ...
अब फीफा भी देख नहीं सकते ,
वक़्त ऐसा कुछ स्ट्रेंज हुआ ...

जाने फिर क्यूं मैं बड़ा हुआ ...


बचपन में माँ के हाथों से ,
दो रोटी खाने मिलती थी ...
और सुराही का पानी ...
और सोते सोते मिलते थे सुनने को ,
दूर देश परियों की रानी ...
और फिर गहरी नींद में सोता,
सुन के हर दिन वहीं कहानी ...
फिर ना जाने कब मैं बड़ा हुआ ,
कॉलेज की डिग्री लेकर मैं ,
पैसों का महल बना के मैं ,
अपने पैरों पर खड़ा हुआ ...
अब हर दिन नये लोग मिलते हैं ,
अब हर दिन सुनते नयी कहानी ,
पर अब कभी नहीं सुनने को मिलती,
दूर देश परियों की रानी ...
और अब भी दो ही रोटी खाने मिलती है ,
जाने फिर क्यूं मैं बड़ा हुआ ...

काश हमारे दिन फिर जाते ...


काश हमारे दिन फिर जाते ,
हम भी खुशियों से घिर जाते ...
होती अपने पास 'फेरारी' ,
करते उसमें बैठ सवारी ...
अपने आगे पीछे मॉडल्स,
उनकी बाहों में गिर जाते ...
काश हमारे दिन फिर जाते,
हम भी खुशियों से घिर जाते

.... पैसों का अंबार जो होता,
बॉस का अत्याचार ना होता ...
अप्रेज़ल ना भरना होता,
काश ना नाटक करना होता ...
फिर कभी ना खूनी मंडे अपने,
नीले तारों से घिर जाते ...
काश हमारे दिन फिर जाते ,
हम भी खुशियों से घिर जाते ...

काश रोज फटकार ना मिलती,
हाय तौबा और मार ना मिलती ...
काश मैं वीकेंड लेट से उठ-ता ,
काश मुझे भी 'बेड-टी' मिलती ...
हाय काश मेरी ना शादी होती,
यूँ जीवन की बर्बादी होती ...
हम भी फिर बेवक्त कहीं भी,
शान से पार्टी करने जाते ....
काश हमारे दिन फिर जाते ,
हम भी खुशियों से घिर जाते ...

हाय काश मेरा ना परिणय होता ,
ये अत्याचारी निर्णय होता ...
फीफा दर्शन चैन से होता ,
फिर मैं भी सूपर-मैन सा होता ...
ना चलती हरदम धौंस प्रिये की,
ना हर दिन उसके कपड़े धोता ....
इडीयट बॉक्स का चैनल हरदम ,
काश अपने कोंट्रोल में होता ...
जब मेरी छाती पे चढ़ती वो,
काश मैं शिव के रोल में होता ...
हम अपनी फिर विजय मनाने,
काश किसी फिर क्लब में जाते ...
काश हमारे दिन फिर जाते,
हम भी खुशियों से घिर जाते ....

पर वीरों का कुछ तो दाम रख ...


हैं सज्ज पितामह तीरों से ,
है भूमि रिक्त अब वीरों से ,
बलराम शिष्य तू नाम रख ,
तुू अपने हित पांचों ग्राम रख ...
पर वीरों का कुछ तो दाम रख ...
पर वीरों का कुछ तो दाम रख ...

तू बाँध सका ना अट्टहास,
तू कर दुर्योधन फिर प्रयास ,
तूने मुट्ठी में रेत दबाया है ,
पर रेत कहाँ रुक पाया है ?
ले कर दुर्योधन हर एक श्वास,
मुझपे तू फिर से फेंक पाश ...
तू कर दुर्योधन फिर प्रयास ...
तू कर दुर्योधन फिर प्रयास ...

मैं मस्तक , मैं ही कपाल ,
मैं महादेव , मैं इन्द्र-जाल ,
नवजात शिशु , मैं ही हूँ वृद्ध ,
मैं गरल सर्प , मैं ही हूँ गिद्ध ...
मैं जिज्ञासु , मैं अन्तर्यामी ...
मुझमें बसता हर एक प्राणी ...
क्या विचलित और क्या ध्यानी ...
तू बाँध मुझे न अज्ञानी ...
तू बाँध मुझे न अज्ञानी ...

मोक्ष भी मैं , मैं ही हूँ पाश ,
मैं सृष्टि बीज , मैं सर्वनाश ...
मैं हिमचोटि मैं अग्निकुंड ,
मैं एकाकी , मैं सहस्र झुण्ड ...
मैं निर्मल , मैं ही मैला,
मैं सीमित , मैं ही फैला ...
भक्षक भी मैं , मैं ही रक्षक,
यमराज का मैं अंतिम दस्तक ...
ब्रह्म भी मैं , मैं नील-कंठ ...
अणु भी मैं , मैं ही अनंत ...

मैं निर्माण यहाँ , विध्वंस यहा ,
मैं ही ममता , मैं दंश यहाँ ,
मैं पांडव कौरव वंश यहाँ ...
मैं सूर्य चंद्र का अंश यहाँ ...
मैं ही बिक्रम बैताल यहाँ ...
मैं ही पृथ्वी पाताल यहाँ ...
मैं ही अर्जुन, मैं कर्ण यहाँ ,
श्वेत श्याम सब वर्ण यहाँ ...

मैं ही अग्नि , मैं जल भी हूँ ,
मैं भूत काल, मैं कल भी हूँ ...
लौह भी मैं , मलमल भी मैं ,
तेरी मृत्यु का पल पल भी मैं ...
तेरी मृत्यु का पल पल भी मैं ...

है रक्त से जिह्वा लाल देख,
तू रणभूमि का हाल देख,
चहुँ ओर तीर सा बरस रहा,
इक बूँद नीर को तरस रहा ,
र क्त श्वेद अश्रु से लथपथ,
भूमि पर तू कर रहा है छटपट ,
है कैसा तेरा हाल देख ...
तू अपना नर कंकाल देख ...
तू अपना नर कंकाल देख ...

है वक़्त की कैसी मार देख,
तू रण में अपनी हार देख ,
कि मृतक पड़ा संसार देख,
गुरु द्रोण पितामह कुन्ती-पुत्र पे ,
हो चुका है अंतिम वार देख ,
तू अपने कर्मों का भार देख ...
तू अपने कर्मों का भार देख ...

- कृष्ण

ओ री मेरी प्यारी मैया ...


लाड ना देना,
प्यार ना देना,
तुम ना देना पुचकार ,
पर कोख में मुझको,
जनम से पहले,
ओ री मेरी प्यारी मैया,
तू मुझको ना मार ...
अन्न ना देना,
जल ना देना,
पर ना करना तुम ऐसा मैया,
की तुम मुझको कल ना देना,
बाबा कहते हैं ना हरदम,
भैया के घर में आने से,
उनका चलेगा अब घर बार,
मैया मुझको भी एक मौका दे दे,
मैं भी छोटे पंख लगाकर,
करूँगी उनके सपनों का विस्तार ...
पर ओ री मेरी प्यारी मैया,
जनम से पहले,
तू मुझको ना मार ...
मैं पड़ी रहूँगी कोने मे,
हरदम एक बिछौने में ,
तू अपने हाथ ना मैले करना ,
मेरे कपड़े धोने में ...
पर तेरी एक हँसी को मैया ,
मैं रहूँगी हरदम ही तैयार ...
पर ओ री मेरी प्यारी मैया,
जनम से पहले,
तू मुझको ना मार ...
हर जनम में मेरी चाह यहीं,
की मैं तुझसे ही लूँ अवतार ...
पर मुझको ये डर है मैया ,
की मुझको बाबा बेच ना दें ,
की मेरा ना हो फिर व्यपार,
की दुनिया में बहुत बड़ा बाज़ार ...
ऐसा ही होना है तो ,
तो ओ री मेरी प्यारी मैया,
जनम से पहले ,
कोख में अपने ,
तू मुझको दे मार ...
की तेरा बहुत बड़ा आभार ...
कि मैं हूँ नहीं कोई व्यापार ...
कि मैं हूँ नहीं कोई व्यापार ...

धोबी का कुत्ता; ना घर ना घाट का ...


इक बड़े बियावह जंगल में ,
छोटा सा इक श्‍वान मगन था ...
पीने को था मीठा पानी,
और सर के उपर नील गगन था ...
इक दिन बीच राह में उसको,
रस्ते पर एक गधा मिला ...
लाल रंग के खूँटे से वो,
घाट किनारे बँधा मिला ...
कहाँ जा रहा नालायक,
कहा गधे ने बड़े शान से ...
यूँ मस्ती मे चला ना कर तू,
दूँगा नीचे एक कान के ...
देख यहाँ पे हर दिन मैं ,
अरबों के भाव कमाता हूँ ...
और दिन ढ़लने पर हर दिन ऐसे ,
बूँदी के लड्‌डू खाता हूँ ...
गर काम करेगा साथ मेरे तो ,
तुझको मालपुआ खिलवा-उँगा,
पैसों का अंबार लगा कर ,
तुझको तेल-कुआँ दिलवा-उँगा ...
अपने सूत्रधार ने अब तक ,
ऐसे स्वपन न देखे थे ,
ऐसी चिकनी चुपड़ी बातें ..
ऐसे कथन न देखे थे ...
तो बन के जोड़ीदार श्‍वान का,
उसको अपना मित्र बनाया ,
हवामहल का शासक है वो ,
उसको ये चल-चित्र दिखाया ...
अब कुत्तों की टोली का,
बन चुका है अब सरदार गधा ...
और सबको देता इक ही मूल्यांकन,
कार्यकुशल हर बार गधा ....
अब ऐसा है दृश्य यहाँ का,
है गधा गुरु बन बैठा और ,
और श्‍वान बना है शिष्य यहाँ का ...
है नायक की उम्र तीस पर,
लगता जैसे हुआ साठ का ...
यूँ ही तो कहते लोग नहीं ,
धोबी का कुत्ता; ना घर ना घाट का ...

    Monday, April 28, 2014

    अब तो मुझको उड़ जाने दो ...


    कुछ वर्षों के बाद हुआ है ,
    मन थोड़ा आज़ाद हुआ है ...
    फिर आसमान जुड़ जाने दो,
    अब तो मुझको उड़ जाने दो,
    अब ना मुझको तुम दाने दो ...
    बस अपने सपनों को पाने दो,
    अब मुझको उड़ जाने दो ...
    मैं देव नहीं बन पाउँगा,
    पर मुझको दानव ना बन जाने दो ...
    ना करुण रहे मेरे मन में,
    ऐसा मानव ना बन जाने दो ...
    आशायें स्वच्छन्द रहें,
    मेरी मुट्ठी बंद रहे...
    पर धीरे धीरे आशाओं में ,
    थोड़े अंकुर तो आने दो ...
    मन ही मन बुन जाने दो ,
    अपने सपनों को पाने दो ...
    हरी शाख, लहराते पत्ते
    मुझको भी बहुत लुभाते हैं ...
    घने वृक्ष और संगी साथ,
    मुझको सदा बुलाते हैं ...
    पर मुझको मोह ना आने दो ,
    गगन-स्पर्श पा जाने दो,
    अपने पर फैलाने दो ,
    अब तो मुझको उड़ जाने दो ...

    सेल्फी ...


    थोड़ा सा हँस देंगे हम,
    और थोड़ा सा शरमाएंगे,
    फिर 'सेल्फी' वाले पिक पे जब,
    अपने हन्ड्रेड लाइक्स आयेंगे ,
    फिर हम भी डॉक्टर इंजिनियर से,
    सेलेब्रिटी बन जायेंगे ...

    अपने को लोग 'वॉव' कहेँगे,
    शोहरत ऐसी पायेंगे ,
    अपना स्टेटस चेंज हुआ जो,
    FB पे छा जायेंगे,
    हम भी फिर कन्फ्यूज़्ड लवर से,
    सेलेब्रिटी बन जायेंगे ...

    घर में चाहे मारा-मारी,
    किसी से बात नहीं कर पायेंगे ,
    पर लिखेंगे FB पे हम ,
    सहानुभूति फिर पायेंगे,
    हम भी फिर बीवी शौहर से,
    सेलेब्रिटी बन जायेंगे ...

    ऑफीस का हो काम भले ना,
    बॉस से डंडे खायेंगे ,
    जब अपनी नहीं सुने फिर कोई,
    गम के आँसूं पी जायेंगे,
    पर टाइम मिले जैसे फिर हमको,
    FB पे बॉस बजायेंगे ,
    फिर हम भी फ्रस्टरेटेड एम्पलोयी से,
    सेलेब्रिटी बन जायेंगे ...

    राजनीति का पता नहीं कुछ ,
    पर अपनी टांग अड़ायेंगे,
    AC रूम में बैठे बैठे ,
    FB पे आलोचक बन जायेंगे,
    मोदी राहुल AK की फिर,
    जम के खूब लगायेंगे ,
    फिर हम भी सिंपल वोटर से ,
    सेलेब्रिटी बन जायेंगे ...

    फिर 'सेल्फी' वाले पिक पे जब,
    अपने हन्ड्रेड लाइक्स आयेंगे ,
    फिर हम भी डॉक्टर इंजिनियर से,
    सेलेब्रिटी बन जायेंगे ...


    बेटा तुमसे ना हो पायेगा ...


    कॉलेज खतम हुआ नहीं की,
    बाबूजी सिर चढ़ कर बोले,
    अब तुम सीना तान खड़े हो,
    और जिम्मेदारी के झेलो गोले,

    हमने कहा पिताजी देखो,
    हम हैं थोड़े अलग किस्म के,
    बड़े बड़ों से टक्कर लेंगे,
    खूब पिलायेंगे हम पानी,
    और कुछ सालों में अपने पीछे ,
    होंगे टाटा और अंबानी

    उनकी मुख खुली रह गयी,
    फिर धीरे से ऐनक खोले,
    बेटा भांग चढ़ गयी क्या ?
    जा अब थोड़ा सा सो तू सो ले ...

    तूने सोच लिया भी कैसे,
    अब टाटा तेरे गुण गायेगा ...
    और अपने घर के बाहर तू ,
    अंबानी को पायेगा ...

    पगले ऐसा बोल के तू क्या ...
    आंखों में आँसू लायेगा ,
    तुझको ले कर बड़े स्वप्न थे,
    इक दिन सरकारी दफ्तर में तू,
    हेड-क्लर्क की तख्ती पायेगा,
    पर सुन कर तेरी चिकनी बातें ,
    अब मुझको ये समझ आ गया,
    बेटा तुमसे ना हो पायेगा ...
    बेटा तुमसे ना हो पायेगा ...

    अब माँ ने फिर राग अलापा,
    पापा तो यूं ही कहते हैं ,
    मैं कहती हू कॉलेज में तू,
    हर कोर्स में इक्का पायेगा ,
    मेरा लाल बड़ा होकर,
    बिल गेट्स से आगे आयेगा ...

    सुनकर माँ की ऐसी बातें,
    आँखों ने ये दृश्य घुमाया,
    चौथी बार मा १२० में,
    मुश्किल से ही डिक्का पाया ,
    ए-टी कुण्डू पूछो ही मत,
    उनको ऑडिट विथ्ड्राव करवाया ...

    अब माँ बेटे का प्यार देखकर ,
    बाबूजी थोड़ा घबराये ,
    हमको लगा सही वक़्त पर,
    माँ ने अपने झंडे फ़हराए ....

    फिर माँ ने कुछ ऐसा पूछा,
    हमको बड़े पसीने आये ...

    माँ ने बोला शादी कर ले,
    बेटा अब तू बड़ा हो गया,
    सूंघ गया फिर साँप मुझे,
    रोआँ रोआँ खड़ा हो गया ...

    मैने कहा हे मम्मी तुमको,
    ये अकस्मात् क्या कीड़ा आया,
    पल दो पल में तुमने मुझको,
    गेट्स से बीवी-नौकर बनवाया ...
    मैं पका आम नहीं कच्चा हूं,
    उम्र हो गयी ३५ पर,
    मैं तो छोटा सा बच्चा हूं,
    मैं तो ऐसे ही अच्छा हूं ...

    मैं समझ गयी बेटा अब तुमको,
    अब क्या मेरी भी सुनता जायेगा ?
    घर अबकी जो आये मार्क्‍स फिर ,
    तू छिपा नहीं फिर पायेगा ...
    अबकी बार कहीं रहे तू,
    पाप नहीं धो पायेगा,
    बेटा तुमसे ना हो पायेगा ...
    बेटा तुमसे ना हो पायेगा ...


    Sunday, April 14, 2013

    इस सोच में बैठा हूँ मैं कब से ...

    क्या मेरा क्षण-भंगुर दुस्साहस ,
    हर आज में यूँ ही खड़ा रहेगा ?
    कठपुतली सा मूक हमेशा ?

    अपनी रोटी के ताने-बाने में ...
    जाने किस झूठ बहाने में ....?

    या फिर मुट्ठी भींच यह साहस ...
    सच्ची मर्यादा हित लड़ा करेगा ...

    इस सोच में बैठा हूँ मैं कब से ...
    कल से कितना कुछ करना जीवन में ...
    पर कल क्या फिर मुझको वक़्त मिलेगा ???

    यह कायरता की धुंध घनी है ...
    पर मैं क्यूँ तुमको दोषी ठहराऊँ ...
    मैं खुद भी तो परिवर्तन को बढ़ सकता था ...
    और आने वाली हर बाधा से ...
    सहिष्णुता से लड़ सकता था ...

    पर मैं रुक रहा जाने किस कल तक ...???

    इस सोच में बैठा हूँ मैं कब से ...
    कल से कितना कुछ करना जीवन में ...
    पर कल क्या फिर मुझको वक़्त मिलेगा ... ?

    Saturday, April 13, 2013

    मैं क्यूँ न द्वेष त्याग दूं ...



    ये युद्ध न कोई छल प्रपंच है,
    हे अर्जुन; बस ये रंगमंच है ...
    नश्वर शरीर आधा गुलाल है ...
    बस पृष्ठ-भूमि का रंग लाल है ...

    भरी सभा में हो गया,
    जब द्रौपदी का चीर,
    खड़ा रहा तू देखता,
    बता तू किस तरह का वीर ?
    क्यूँ फटी नहीं धरा तेरी ...
    क्यूँ न फैला रक्ताबीर ?
    तू भी मौन देखता रहा,
    हुआ तू क्यूँ नहीं अधीर ?
    पार्थ! बता तू किस तरह का वीर ???

    ना मिलेंगे वृक्ष-छाँव में,
    हो वीर जिन दिशाओं में,
    जो धूल धूल हो शरीर,
    वहीँ तो बन गया है वीर ...

    ये न सोच अब कहीं,
    की शत्रु मेरा भाई है ...
    भाग्य में यहीं लिखा,
    कि ये धर्म की लड़ाई है ...

    बाण भेद दे शरीर,
    आत्मा ना होगी चीर,
    ये चिता तो देह-भस्म है ...
    यहीं तो प्रकृति का रस्म है ...

    -कृष्ण

    मैं कैसे गांडीव उठाउँगा
    सबको छलनी कर जाउँगा
    क्या बल से ही परिणाम-विजय होगा ?
    या छल से भी वध-निर्णय होगा ?

    ये युद्ध जीत भी गया,
    तो सबको हार जाऊँगा ...
    जो कटा यह वंश-वृक्ष तो...
    किसकी छाँव पाऊँगा ???

    क्यूँ धर्म-नाम युद्ध हो,
    क्यूँ भूमि फिर से क्रुद्ध हो ?
    मैं क्यूँ धरा को दाग दूं ?
    मैं क्यूँ न द्वेष त्याग दूं ...

    घनी है धुंध राह में,
    की दृष्टि दूर तक गडी ...
    जब रक्त हर कराह में ,
    फिर तेरी ये सृष्टि क्यूं खड़ी ?

    है कौरवों का रक्त ये ,
    पर रक्त क्यूं बहे हरि ?
    क्या फर्क होगा लाल में ...
    जब लाल हो धरा पड़ी ?

    मैं थक गया कराह से,
    गुलाल के प्रवाह से ..
    मैं क्यूँ चिता को आग दूं ?
    मैं क्यूँ न बाण त्याग दूं ...

    मैं विध्वंस त्याग दूं 'हरि'
    फिर धरा हो स्वर्ग से बड़ी,
    मैं क्यूँ धरा को दाग दूं ?
    मैं क्यूँ न द्वेष त्याग दूं ...

    -अर्जुन