
रिसते हुए रक्त ने पूछा, ये क्या युद्ध की भाषा है ..
कटे लाख सर बिन कारण के, पर बढती और पिपासा है ...
कहा वक़्त ने हँसते हँसते , ये हर युग की परिभाषा है ...
हर युग में यह होता लेकिन, ये भी खूब तमाशा है ...
इक युग में देखा कलिंगा, इक युग में रामायण देखा ,
इक में देखा छत्रपति तो, इक युग में नारायण देखा ,
सतयुग आया, देखा अर्जुन; इक एकलव्य भी मैंने देखा ...
देखी मैंने मरती सांसें, लाल द्रव्य भी मैंने देखा ...
कहा वक़्त ने चुपके से फिर, तू क्यूँ रोता लहू मगर है,
गर शरीर में दर्द छिपा है , थोड़ी भी सच्चाई अगर है ,
आएगा इक दिन ऐसा भी ; जब वो खुद में ही रह जाएगा,
जो बहा रहा वो दरिया तेरा, फिर खुद उसमे ही बह जाएगा,
फिर सोचेगा क्या पाया उसने ; युद्ध की क्या कुछ परिभाषा है ..
हर युग में ये होता लेकिन, ये भी खूब तमाशा है ...
2 comments:
This one seems to be the latest and as good as the others :)
Keep writing buddy..
Thank Sachin yaar ... aap jaise kadra-daanon ke kaaraan hi yeh mehfil jami rehti hai ...
Post a Comment