Friday, January 02, 2015

धोबी का कुत्ता; ना घर ना घाट का ...


इक बड़े बियावह जंगल में ,
छोटा सा इक श्‍वान मगन था ...
पीने को था मीठा पानी,
और सर के उपर नील गगन था ...
इक दिन बीच राह में उसको,
रस्ते पर एक गधा मिला ...
लाल रंग के खूँटे से वो,
घाट किनारे बँधा मिला ...
कहाँ जा रहा नालायक,
कहा गधे ने बड़े शान से ...
यूँ मस्ती मे चला ना कर तू,
दूँगा नीचे एक कान के ...
देख यहाँ पे हर दिन मैं ,
अरबों के भाव कमाता हूँ ...
और दिन ढ़लने पर हर दिन ऐसे ,
बूँदी के लड्‌डू खाता हूँ ...
गर काम करेगा साथ मेरे तो ,
तुझको मालपुआ खिलवा-उँगा,
पैसों का अंबार लगा कर ,
तुझको तेल-कुआँ दिलवा-उँगा ...
अपने सूत्रधार ने अब तक ,
ऐसे स्वपन न देखे थे ,
ऐसी चिकनी चुपड़ी बातें ..
ऐसे कथन न देखे थे ...
तो बन के जोड़ीदार श्‍वान का,
उसको अपना मित्र बनाया ,
हवामहल का शासक है वो ,
उसको ये चल-चित्र दिखाया ...
अब कुत्तों की टोली का,
बन चुका है अब सरदार गधा ...
और सबको देता इक ही मूल्यांकन,
कार्यकुशल हर बार गधा ....
अब ऐसा है दृश्य यहाँ का,
है गधा गुरु बन बैठा और ,
और श्‍वान बना है शिष्य यहाँ का ...
है नायक की उम्र तीस पर,
लगता जैसे हुआ साठ का ...
यूँ ही तो कहते लोग नहीं ,
धोबी का कुत्ता; ना घर ना घाट का ...

    No comments: