धीमी सी आंच पे जलते जलते
अब सारे शीश पिघल आये...
कुछ रिश्ते धागों मे बांधे थे,
अब धागों में गाँठ निकल आये...
इस जीवन आपा धापी में
हम मीलों मील निकल आये ...
कुछ रिश्ते दीवार पे टांगे थे ,
अब उनके कील निकल आये ...
स्वीकार्य मुझे है मल शरीर,
पर छल से बन जाऊं न वीर,
क्या फिर से दान कवच होगा ,
क्या फिर चुप्पी साधे सच होगा ?
क्या रण में वीरों का भय होगा,
या रण भी चौसर से तय होगा ?
- अर्जुन
क्या सूत-पुत्र का भय तुमको ,
तुम क्यों व्याकुल हो मित्र यहाँ,
गांडीव जीते या विजय धनुष,
बन जाएगा चलचित्र यहाँ ,
जब फैलेगा रक्त-इत्र यहाँ ...
फिर कर्ण जीते या पार्थ यहाँ,
फिर जीतेगा पुरुषार्थ यहाँ ...
- कृष्ण
ये संचार-माध्यम भी आजकल कमाल करता है ,
कभी मोदी ,
कभी केजू ,
तो कभी राहुल बाबा से सवाल करता है ...
करोड़पति के घपले छोड़,
सौ टके पे बवाल करता है...
अंधे को लूला , लूले को लंगड़ा,
और लंगड़े को बेहाल करता है ...
और जहाँ कोई क्रांतिकारी पैदा हुआ नहीं,
कि उसकी नीयत पे सौ सौ सवाल करता है ...
बैताल को बिक्रम और बिक्रम को बैताल करता है ...
लहू को बेरंग और नीर को फिर लाल करता है ...
जी हाँ हुज़ूर ये संचार माध्यम भी कमाल करता है ...
जी हाँ हुज़ूर ये संचार माध्यम ,
कभी तिल का ताड़ तो कभी बाल की खाल करता है ...
बिके हुए लोगों के खड़ी मिसाल करता है ...
सत्य को असत्य और असत्य को मालामाल करता है ...
कभी दाल में काला और कभी काले में दाल करता है ...
जी हाँ हुज़ूर ये संचार माध्यम भी कमाल करता है ...





